भाषा एवं साहित्य >> उर्वशी काव्य में नारी चेतना उर्वशी काव्य में नारी चेतनामीता अरोरा
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समर्थ साहित्यकार दिनकर की सशक्त काव्यकृति की समीक्षा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
आधुनिक युग द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का युग है। वैश्वीकरण तथा उदारीकरण के
तीव्र वेगाघात से जीवन-मूल्य तेजी से बदल रहे हैं। इन परिवर्तमान मूल्यों
ने मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया है। ‘सर्वे
गुणाः कांचनमाश्रयन्ति’ की उक्ति आज की भोगवादी संस्कृति के
सन्दर्भ में सर्वाधिक सार्थक एवं सम्प्रभावी सिद्ध हो रही है, इसी कारण
जीवन के आधारभूत पुरुषार्थ चतुष्ट्य में अर्थ एवं काम सर्वाधिक ग्राह्य हो
रहे हैं। ऐसी स्थिति में हिन्दी के पुरोधा साहित्यकार ‘दिनकर’ की प्रसिद्ध कृति
‘उर्वशी’ की प्रासंगिकता एवं उसका महत्व बढ़ जाता है,
क्योंकि वह महज एक अतीन्द्रिय सौन्दर्य तथा उद्दाम प्रेम का ही काव्य नहीं
है वरन् काम से आध्यात्म की महायात्रा का प्रेरक आख्यान भी है। इसके
इतिवृत्त की मूलधारा में मानव जीवन-दर्शन की कई छोटी-छोटी धाराएं भी आकर
मिल जाती हैं। स्वयं ‘दिनकर’ के शब्दों में-
‘‘इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श, यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।’’
भोग से योग, काम से आध्यात्म यही तो भारत के सनातन जीवन-दर्शन का शाश्वत स्वरूप है, जिसकी पुष्टि करती है ‘पुरुषार्थ-चतुष्टय’ की परिकल्पना अर्थात् धर्मरूपी सारथि से नियन्त्रित काम-अर्थ के अश्वों से संचालित जीवनरथ में आगे बढ़ते हुए गन्तव्य ‘मोक्ष’ तक पहुँचना इस महायात्रा के सहयात्री नर-नारी दोनों हैं- एक दूसरे के सम्पूरक, सम्प्रेरक एवं सहभागी। तभी तो ‘रघुवंश’ का अमर रचयिता मंगलाचरण में ‘वागर्थ’ के सम्यक् ज्ञान की याचना ‘वागर्थ’ की भांति संयुक्त ‘शिव-पार्वती’ से करता है- अकेले भगवान शिव या पार्वती से नहीं- क्योंकि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। नर-नारी का यह स्वरूप सनातन एवं शाश्वत है। यही सम्पूर्ण सृष्टि, उसकी क्रियात्मक शक्ति तथा विकास का आधार है, तभी तो दिनकर पुरुरवा और उर्वशी को दैवी पात्र न मानकर ‘सनातन नर’ तथा ‘सनातन नारी’ मानते हैं।
वैश्वीकरण के दौर में तीव्रतर होती भोगवादी संस्कृति का प्रभाव सम्पूर्ण मानव जीवन पर पड़ रहा है। नारी भी इससे अछूती नहीं है। स्वतन्त्रता एवं समानता की भावना ने जहाँ उसे जीवन में पुरुष के साथ कदम- से-कदम मिलाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है- शक्ति एवं सामर्थ्य दी है, वहीं भौतिकवादिता के प्रबल आकर्षण ने उसको ‘भोग्य नारी’ के रूप में पहचाने जाने का संकट भी उपस्थित कर दिया है। एक ओर जीवन मूल्यों के प्रति पारम्परिक आस्था और दूसरी ओर भौतिकता का प्रबल आकर्षण, मन में एक गहरा द्वन्द्व उत्पन्न करता है, जो पुरुखा में बड़ी शिद्दत से दिखाई देता है तथा जिससे प्रकृत्या द्वन्द्व मुक्त उर्वशी भी भ्रमित होती है, तभी तो वह पूछती है ?
‘‘क्या ईश्वर और प्रकृति दो हैं ? क्या ईश्वर प्रकृति का प्रतिफल है ? उसका प्रतियोगी है ? क्या दोनों एक साथ नहीं चल सकते ? क्या प्रकृति ईश्वर का शत्रु बनकर उत्पन्न हुई है ? अथवा क्या ईश्वर ही प्रकृति से रुष्ट है ?’’
इनके और ऐसे ही अनेक प्रश्नों के सार्थक उत्तर तलाशने का सुचिन्तित, सुविचारित, सारग्राही सम्यक प्रयास है ‘उर्वशी’ काव्य का सृजन। दिनकर ने ये उत्तर इस काव्यकृति के विभिन्न पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत किए हैं, जिनमें सर्वाधिक प्रभावी एवं आकर्षक हैं नारीपात्र। इनमें लौकिक जीवन का आकर्षण, यथार्थ के आग्रह के साथ ही आदर्श के ओज एवं अध्यात्म के औदात्य का हृदयग्राही रूप देखने को मिलता है। उर्वशी, औशीनरी, सुकन्या, मेनका, चित्रलेखा आदि नारी पात्रों के जीवन में एक ओर यदि अतीन्द्रिय सौन्दर्य की मोहकता, अनिंद्य रूपजन्य अहंकार, उत्कट प्रणयातुरता, काम की उद्दाम उत्तेजना, भोग की उन्मत्त अभिलाषा है, तो दूसरी ओर उनमें आदर्श का आग्रह, औदात्य का आलोक, संवेदना की गहनता, कर्त्तव्यनिष्ठता, मातृत्व की उदात्तता, अध्यात्म की आभा आदि भी है। दिनकर के सृजनशील ‘मन ने दर्द को न केवल महसूस किया है अपितु जिया भी है। उनकी सक्षम लेखनी से निःसृत कविता की भूमि पर सृजित इन नारी पात्रों ने भी दर्द को जिया है, बेचैनी को जाना है, वासना की लहरों ने उन्हें डुबाया-उतराया है, रक्त के उत्ताप ने आकुल किया है तथा अन्ततः जीवन मूल्यों से निर्मित संवेदना के गहन-गह्वर की शान्ति में उन्होंने अध्यात्म के आलोक का अनुभव किया है। यही उर्वशी की नारी चेतना का स्वरूप है आधुनिक युग के परिवेश, स्वरूप एवं सरोकारों के सन्दर्भ में यह ‘कृति’ अत्यन्त महत्त्पूर्ण हो जाती है।
समर्थ साहित्यकार ‘दिनकर’ की ऐसी सशक्त काव्यकृति की समीक्षा सरल नहीं है। विविध मानसिक भाव-भंगिमाओं वाले विभिन्न नारी पात्रों की समन्वित नारी चेतना की विवेचना, मूल्यांकन एवं आधुनिक समाज के सन्दर्भों के तहत उसकी प्रासंगिकता एवं उपयोगिता का निर्धारण कठिन कर्म था पर लेखिका डॉ. मीता अरोरा ने उसका सफलता के साथ निर्वाह किया है। उन्होंने एक नवीन दृष्टि से इस कृति पर विचार देते हुए बड़े परिश्रम से वैदिक साहित्य से लेकर अधुनातन साहित्य तक समाज में नारी की स्थिति तथा उसकी चेतना के बहुआयामी स्वरूप का मूल्यांकन किया है। मुझे विश्वास है कि ‘उर्वशी’ काव्य से सम्बन्धित अनेक समीक्षात्मक कृतियों के मध्य यह पुस्तक अपनी उपयोगिता सिद्ध करेगी।
‘‘इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श, यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।’’
भोग से योग, काम से आध्यात्म यही तो भारत के सनातन जीवन-दर्शन का शाश्वत स्वरूप है, जिसकी पुष्टि करती है ‘पुरुषार्थ-चतुष्टय’ की परिकल्पना अर्थात् धर्मरूपी सारथि से नियन्त्रित काम-अर्थ के अश्वों से संचालित जीवनरथ में आगे बढ़ते हुए गन्तव्य ‘मोक्ष’ तक पहुँचना इस महायात्रा के सहयात्री नर-नारी दोनों हैं- एक दूसरे के सम्पूरक, सम्प्रेरक एवं सहभागी। तभी तो ‘रघुवंश’ का अमर रचयिता मंगलाचरण में ‘वागर्थ’ के सम्यक् ज्ञान की याचना ‘वागर्थ’ की भांति संयुक्त ‘शिव-पार्वती’ से करता है- अकेले भगवान शिव या पार्वती से नहीं- क्योंकि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। नर-नारी का यह स्वरूप सनातन एवं शाश्वत है। यही सम्पूर्ण सृष्टि, उसकी क्रियात्मक शक्ति तथा विकास का आधार है, तभी तो दिनकर पुरुरवा और उर्वशी को दैवी पात्र न मानकर ‘सनातन नर’ तथा ‘सनातन नारी’ मानते हैं।
वैश्वीकरण के दौर में तीव्रतर होती भोगवादी संस्कृति का प्रभाव सम्पूर्ण मानव जीवन पर पड़ रहा है। नारी भी इससे अछूती नहीं है। स्वतन्त्रता एवं समानता की भावना ने जहाँ उसे जीवन में पुरुष के साथ कदम- से-कदम मिलाकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है- शक्ति एवं सामर्थ्य दी है, वहीं भौतिकवादिता के प्रबल आकर्षण ने उसको ‘भोग्य नारी’ के रूप में पहचाने जाने का संकट भी उपस्थित कर दिया है। एक ओर जीवन मूल्यों के प्रति पारम्परिक आस्था और दूसरी ओर भौतिकता का प्रबल आकर्षण, मन में एक गहरा द्वन्द्व उत्पन्न करता है, जो पुरुखा में बड़ी शिद्दत से दिखाई देता है तथा जिससे प्रकृत्या द्वन्द्व मुक्त उर्वशी भी भ्रमित होती है, तभी तो वह पूछती है ?
‘‘क्या ईश्वर और प्रकृति दो हैं ? क्या ईश्वर प्रकृति का प्रतिफल है ? उसका प्रतियोगी है ? क्या दोनों एक साथ नहीं चल सकते ? क्या प्रकृति ईश्वर का शत्रु बनकर उत्पन्न हुई है ? अथवा क्या ईश्वर ही प्रकृति से रुष्ट है ?’’
इनके और ऐसे ही अनेक प्रश्नों के सार्थक उत्तर तलाशने का सुचिन्तित, सुविचारित, सारग्राही सम्यक प्रयास है ‘उर्वशी’ काव्य का सृजन। दिनकर ने ये उत्तर इस काव्यकृति के विभिन्न पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत किए हैं, जिनमें सर्वाधिक प्रभावी एवं आकर्षक हैं नारीपात्र। इनमें लौकिक जीवन का आकर्षण, यथार्थ के आग्रह के साथ ही आदर्श के ओज एवं अध्यात्म के औदात्य का हृदयग्राही रूप देखने को मिलता है। उर्वशी, औशीनरी, सुकन्या, मेनका, चित्रलेखा आदि नारी पात्रों के जीवन में एक ओर यदि अतीन्द्रिय सौन्दर्य की मोहकता, अनिंद्य रूपजन्य अहंकार, उत्कट प्रणयातुरता, काम की उद्दाम उत्तेजना, भोग की उन्मत्त अभिलाषा है, तो दूसरी ओर उनमें आदर्श का आग्रह, औदात्य का आलोक, संवेदना की गहनता, कर्त्तव्यनिष्ठता, मातृत्व की उदात्तता, अध्यात्म की आभा आदि भी है। दिनकर के सृजनशील ‘मन ने दर्द को न केवल महसूस किया है अपितु जिया भी है। उनकी सक्षम लेखनी से निःसृत कविता की भूमि पर सृजित इन नारी पात्रों ने भी दर्द को जिया है, बेचैनी को जाना है, वासना की लहरों ने उन्हें डुबाया-उतराया है, रक्त के उत्ताप ने आकुल किया है तथा अन्ततः जीवन मूल्यों से निर्मित संवेदना के गहन-गह्वर की शान्ति में उन्होंने अध्यात्म के आलोक का अनुभव किया है। यही उर्वशी की नारी चेतना का स्वरूप है आधुनिक युग के परिवेश, स्वरूप एवं सरोकारों के सन्दर्भ में यह ‘कृति’ अत्यन्त महत्त्पूर्ण हो जाती है।
समर्थ साहित्यकार ‘दिनकर’ की ऐसी सशक्त काव्यकृति की समीक्षा सरल नहीं है। विविध मानसिक भाव-भंगिमाओं वाले विभिन्न नारी पात्रों की समन्वित नारी चेतना की विवेचना, मूल्यांकन एवं आधुनिक समाज के सन्दर्भों के तहत उसकी प्रासंगिकता एवं उपयोगिता का निर्धारण कठिन कर्म था पर लेखिका डॉ. मीता अरोरा ने उसका सफलता के साथ निर्वाह किया है। उन्होंने एक नवीन दृष्टि से इस कृति पर विचार देते हुए बड़े परिश्रम से वैदिक साहित्य से लेकर अधुनातन साहित्य तक समाज में नारी की स्थिति तथा उसकी चेतना के बहुआयामी स्वरूप का मूल्यांकन किया है। मुझे विश्वास है कि ‘उर्वशी’ काव्य से सम्बन्धित अनेक समीक्षात्मक कृतियों के मध्य यह पुस्तक अपनी उपयोगिता सिद्ध करेगी।
डॉ. पूरनचन्द टण्डन
आत्मनिवेदन
साहित्यसर्जकों की प्रतिभा के प्रकाश तथा उनकी संवेदना की शीतल छाया से
सम्पृक्त साहित्यिक कृतियों की रमणीय पर रहस्यमयी वीथियों में घूमता हुआ
मेरा मन न जाने कितने मनोरम मोड़ों पर ठिठक कर विस्मय-विमुग्ध सा उन्हें
निहारता रहता था, हर मोड़ का आकर्षण मेरे जिज्ञासु मन को अपने निकट आने का
मौन निमंत्रण देता रहता था। यह निमंत्रण मुझे साहित्य-सरित् के तट पर
‘बौरी’ बन कर बैठे रहने के स्थान पर सरस सलिल की
गहराई में पैठने की प्रेरणा दिया करता था। ‘गहरे पानी
पैठने’ की मेरी सामर्थ्य तो नहीं थी पर उस सलिला में अवगाहन
मात्र से कुछ ऐसे रत्न अवश्य हाथ लगे जिनकी चमक ने मुझे चमत्कृत कर दिया।
ऐसा ही एक रत्न, जिसकी कान्ति ने मुझे अपनी ओर आकर्षित किया, कविवर दिनकर
रचित ‘उर्वशी’ काव्य है। उसके नारी पात्रों के
बहुआयामी व्यक्तित्व, उसकी नारी चेतना के इन्द्रधनुषी रंगों में मेरी
संवेदना ऐसी रमी कि उसके रहस्यावेष्टित, अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करने की
ललक जाग उठी। साहित्य-अध्येयता को समीक्षक बनने की प्रेरणा देने के लिए
‘उर्वशी’ का अध्ययन पर्याप्त था।
‘साहित्य’ शब्द के निहितार्थ को जानने के लिए लेखकों, विचारकों आदि की भारी भरकम परिभाषाओं की आवश्यकता नहीं है। इसके व्युत्पत्ति परक अर्थ से जो एक छोटा सा शब्द ‘सहित्’ निकलता है वह अपने भीतर साहित्य की व्यापकता और अनन्त सम्भावनाओं को उसी प्रकार आत्मसात् किए हुए है जैसे, एक छोटे से स्फुलिंग में विराट ज्वाला पुंज अन्तर्निहित रहता है। ‘संहित’ अर्थात् ‘हितेन सहितम्’ सम्भवतः इसीलिए यश, अर्थ, व्यवहार, ज्ञान आदि के साथ ‘शिवेतरक्षतये’ को साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन माना गया। मेरी दृष्टि में तो यह साहित्य का शाश्वत प्रयोजन है। युग परिवर्तन के साथ सृजित साहित्य का स्वरूप बदलता है, प्रवृत्तियाँ भी बदलती हैं, कलेवर बदलता है; नहीं बदलता है तो उसके मूल में निहित शिवत्व अर्थात् मानव-मात्र के कल्याण की कामना। आज के इस वैश्वीकरण के युग में जब भौतिकता मान मूल्यों और जीवन के मानदण्डों पर हावी हो रही है, स्वार्थ की अंधी दौड़ तेजी पकड़ती जा रही है, तब साहित्य सर्जकों के लिए ‘शिवेतर क्षतये’ की सामर्थ्य रखने वाले साहित्य का सृजन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है। भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता, यथार्थ के साथ आदर्श, लौकिककता के साथ अलौकिककता, काम के साथ आध्यात्म और भोग के साथ योग के एक स्वस्थ, सार्थक और संतुलित समन्वय की आवश्यकता जितनी आधुनिक युग में है उतनी किसी समय में नहीं रही। जीवन में इसी समन्वय को साधता हुआ ही मनुष्य न केवल अपना बहुआयामी विकास कर सकता है अपितु मानवता व सम्पूर्ण मानव जाति के अस्तित्व को चुनौती देने वाले आसन्न संकट को भी दूर कर सकता है। मुझे यह कहने में यत्किंचित संकोच नहीं है कि दिनकर की कृति ‘उर्वशी’ में ऐसा ही संतुलित समन्वय दृष्टिगत होता है। उसमें नारी चेतना ऐसे ही स्वस्थ, सम्पूरक और सार्थक तत्त्वों से निर्मित हुई है। यह नारी चेतना ऐसी ही स्वस्थ, सम्पूरक और सार्थक तत्वों से निर्मित हुई है। यह नारी चेतना आधुनिक युग की नारियों के लिए एक सशक्त प्रेरणा का स्रोत है दिनकर की ‘उर्वशी’ में व्यक्त नारी चेतना के बहुआयामी पक्षों के सम्पूर्ण बाह्यान्तर की सारगर्भित विवेचना और आधुनिक सन्दर्भों और सरोकारों के अन्तर्गत उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करने की कामना का प्रतिफल है प्रस्तुत पुस्तक।
‘तितीर्षुः दुस्तरं सागरम्’ की तरह ‘उर्वशी’ जैसे काव्य की समीक्षा मेरी ‘अल्पमति’ के लिए सम्भवतः कठिन होती यदि मेरे आत्मीय मामा जी डॉ. अजय प्रकाश का सम्प्रेरक व सारगर्भित मार्गदर्शन न मिला होता। मामा जी के ज्ञान के प्रकाश के साथ ही स्नेहमयी मामी के ममत्व की छाया में मेरा यह कार्य और भी सुगम हो गया। साथ ही मैं अपने श्रद्धेय माता-पिता के प्रति भी अपने प्रेम व आदर को भी व्यक्त करना चाहती हूं जो सदैव मेरे मनोबल को साधते रहे। विज्ञान की अध्येता होने के बावजूद भी मेरी बहनों के साहित्यानुराग ने भी मुझे साहित्य सृजन के लिए सदैव प्रेरित किया। रिश्तों से ऊपर उठ कर यदि एक नाम बार-बार स्मरण हो रहा है तो वह है सौम्या। इस पुस्तक के प्रारम्भ की प्रेरणा देकर उसने मुझे जो सम्बल दिया, उसके लिए कृतज्ञता, आभार, धन्यवाद, साधुवाद, आदि कोई भी शब्द पर्याप्त नहीं है। उससे मिला मूक मनोबल ही इस यात्रा-पथ का पाथेय बना रहा। इसके साथ ही मैं अरविन्द शुक्ल प्रकाशक आराधना ब्रदर्श, कानपुर के प्रति भी आभार व्यक्त करना चाहती हूँ जिन्होंने मेरी ‘सोच’ को एक आकर्षक कलेवर प्रदान कर पुस्तक को आपके हाथ तक पहुँचाने का सराहनीय प्रयास किया है।
अन्त में मैं यही कहना चाहूँगी कि यह पुस्तक अपने उद्देश्य की पूर्ति कितनी सार्थकता से कर सकी है; इसका निर्णय सुधी-सहृदय पाठक ही कर सकते हैं।
‘साहित्य’ शब्द के निहितार्थ को जानने के लिए लेखकों, विचारकों आदि की भारी भरकम परिभाषाओं की आवश्यकता नहीं है। इसके व्युत्पत्ति परक अर्थ से जो एक छोटा सा शब्द ‘सहित्’ निकलता है वह अपने भीतर साहित्य की व्यापकता और अनन्त सम्भावनाओं को उसी प्रकार आत्मसात् किए हुए है जैसे, एक छोटे से स्फुलिंग में विराट ज्वाला पुंज अन्तर्निहित रहता है। ‘संहित’ अर्थात् ‘हितेन सहितम्’ सम्भवतः इसीलिए यश, अर्थ, व्यवहार, ज्ञान आदि के साथ ‘शिवेतरक्षतये’ को साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन माना गया। मेरी दृष्टि में तो यह साहित्य का शाश्वत प्रयोजन है। युग परिवर्तन के साथ सृजित साहित्य का स्वरूप बदलता है, प्रवृत्तियाँ भी बदलती हैं, कलेवर बदलता है; नहीं बदलता है तो उसके मूल में निहित शिवत्व अर्थात् मानव-मात्र के कल्याण की कामना। आज के इस वैश्वीकरण के युग में जब भौतिकता मान मूल्यों और जीवन के मानदण्डों पर हावी हो रही है, स्वार्थ की अंधी दौड़ तेजी पकड़ती जा रही है, तब साहित्य सर्जकों के लिए ‘शिवेतर क्षतये’ की सामर्थ्य रखने वाले साहित्य का सृजन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है। भौतिकता के साथ आध्यात्मिकता, यथार्थ के साथ आदर्श, लौकिककता के साथ अलौकिककता, काम के साथ आध्यात्म और भोग के साथ योग के एक स्वस्थ, सार्थक और संतुलित समन्वय की आवश्यकता जितनी आधुनिक युग में है उतनी किसी समय में नहीं रही। जीवन में इसी समन्वय को साधता हुआ ही मनुष्य न केवल अपना बहुआयामी विकास कर सकता है अपितु मानवता व सम्पूर्ण मानव जाति के अस्तित्व को चुनौती देने वाले आसन्न संकट को भी दूर कर सकता है। मुझे यह कहने में यत्किंचित संकोच नहीं है कि दिनकर की कृति ‘उर्वशी’ में ऐसा ही संतुलित समन्वय दृष्टिगत होता है। उसमें नारी चेतना ऐसे ही स्वस्थ, सम्पूरक और सार्थक तत्त्वों से निर्मित हुई है। यह नारी चेतना ऐसी ही स्वस्थ, सम्पूरक और सार्थक तत्वों से निर्मित हुई है। यह नारी चेतना आधुनिक युग की नारियों के लिए एक सशक्त प्रेरणा का स्रोत है दिनकर की ‘उर्वशी’ में व्यक्त नारी चेतना के बहुआयामी पक्षों के सम्पूर्ण बाह्यान्तर की सारगर्भित विवेचना और आधुनिक सन्दर्भों और सरोकारों के अन्तर्गत उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करने की कामना का प्रतिफल है प्रस्तुत पुस्तक।
‘तितीर्षुः दुस्तरं सागरम्’ की तरह ‘उर्वशी’ जैसे काव्य की समीक्षा मेरी ‘अल्पमति’ के लिए सम्भवतः कठिन होती यदि मेरे आत्मीय मामा जी डॉ. अजय प्रकाश का सम्प्रेरक व सारगर्भित मार्गदर्शन न मिला होता। मामा जी के ज्ञान के प्रकाश के साथ ही स्नेहमयी मामी के ममत्व की छाया में मेरा यह कार्य और भी सुगम हो गया। साथ ही मैं अपने श्रद्धेय माता-पिता के प्रति भी अपने प्रेम व आदर को भी व्यक्त करना चाहती हूं जो सदैव मेरे मनोबल को साधते रहे। विज्ञान की अध्येता होने के बावजूद भी मेरी बहनों के साहित्यानुराग ने भी मुझे साहित्य सृजन के लिए सदैव प्रेरित किया। रिश्तों से ऊपर उठ कर यदि एक नाम बार-बार स्मरण हो रहा है तो वह है सौम्या। इस पुस्तक के प्रारम्भ की प्रेरणा देकर उसने मुझे जो सम्बल दिया, उसके लिए कृतज्ञता, आभार, धन्यवाद, साधुवाद, आदि कोई भी शब्द पर्याप्त नहीं है। उससे मिला मूक मनोबल ही इस यात्रा-पथ का पाथेय बना रहा। इसके साथ ही मैं अरविन्द शुक्ल प्रकाशक आराधना ब्रदर्श, कानपुर के प्रति भी आभार व्यक्त करना चाहती हूँ जिन्होंने मेरी ‘सोच’ को एक आकर्षक कलेवर प्रदान कर पुस्तक को आपके हाथ तक पहुँचाने का सराहनीय प्रयास किया है।
अन्त में मैं यही कहना चाहूँगी कि यह पुस्तक अपने उद्देश्य की पूर्ति कितनी सार्थकता से कर सकी है; इसका निर्णय सुधी-सहृदय पाठक ही कर सकते हैं।
मीता अरोरा ‘मानसी’
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लोगों की राय
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